'आउट ऑफ फार्म' चल रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुभाष महरिया को सियासत के मैदान पर फिर से फार्म में आने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही हैं। हालांकि यह काम इतना आसान नहीं है, फिर भी छात्र जीवन में धावक रहे महरिया ने अपने सियासी जीवन में कई बार बता दिया है कि उनका दांव लगते ही वे विरोधियों को चारों खाने चित करने में चूकने वाले नहीं हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि महरिया जिस तेजी से अर्श पर पहुंचे थे, उसी रफ्तार से फर्श पर भी आ गये हैं। इसके बावजूद वे एक बार फिर लंबी छलांग लगाने के अवसर की तलाश में हैं। वैसे भी राजनीति संभावनाओं का खेल ही होती हैं।
मालूम हो सीकर जिले के सबसे ताकतवर राजनीतिक कुनबे महरिया बंधुओं में से एक सुभाष महरिया की राजनीतिक यात्रा रहस्य रोमांच से भरी हैं। ऐसा सियासी सफर विरले ही नेता कर पाते हैं। वह भी तब जब उनके ही क़बीले में एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता पूर्व में स्थापित रहे हो। कहते है कि कांग्रेस पृष्ठभूमि वाले परिवार के सदस्य होने के बावजूद महरिया ने भाजपा का दामन थामा था और उन्होंने उसी के बैनर तले सीकर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव भी लड़ा लेकिन उनको पहली बार में सफलता नहीं मिली। वे कांग्रेस के डॉ. हरिसिंह के हाथों चुनाव हार गए इसके बावजूद उन्होंने दिल से खुद की हार नही मानी, क्योंकि उन्हें तो एक बड़ी पटकथा, जो लिखनी थी। इसके लिए महरिया ने जबरदस्त मेहनत की। नतीजा यह हुआ कि मध्यावधि चुनाव के बाद महरिया ने सीकर से कांग्रेस के डॉ. हरिसिंह को हराकर अपनी पिछली हार का बदला चूकता कर लिया। उसके बाद तो महरिया के भाग्य ने इस तरह जोर खाया कि पहले धुरंधर दिग्गज नेता डॉ. बलराम जाखड़ को और फिर उस समय के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व दिग्गज जाट नेता चौधरी नारायण सिंह को पटकनी दी। इस दौरान डॉ. जाखड़ को हराने की एवज में उन्हें पुरस्कार स्वरूप केन्द्र में बनी तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री पद से नवाजा गया। बता दे कि यह न केवल उनके लिए बल्कि पूरे सीकर के लिए बड़ी राजनीतिक घटना थी, क्योंकि पहली बार कोई स्थानीय राजनेता केन्द्र सरकार में मंत्री बना था। यह वह समय था जब सीकर के लोग जयपुर की तरह दिल्ली की ओर कदम बढ़ाने लगे थे। सीकर वासियों को ऐसा अहसास पहले कभी नहीं हुआ था, जितना महरिया के मंत्रित्व काल में हुआ। इस तरह महरिया का जादू सिर चढ़कर बोलने लगा। लेकिन कहते हैं ना कि "सब दिन होत न एक समान"। जीत की चौकड़ी लगाने के चक्कर महरिया को कांग्रेस के महादेव सिंह खण्डेला से हार का मुंह देखना पड़ा। बाद में महरिया के लिए यही हार मुसीबत का पहाड़ साबित हुई। तब के हारे महरिया को आज तक जीत भी नसीब नहीं हो पाई। बस अब उन्हें इंतजार है तो एक अदद जीत का। लोकसभा चुनाव की हार के बाद महरिया ने लक्ष्मणगढ़ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा लेकिन वहां भी वे मात खा बैठे। पहले लोकसभा का और फिर विधानसभा का चुनाव हार जाने के कारण भाजपा आलाकमान ने महरिया को छठी बार सांसद का टिकट देने से इंकार कर दिया। नतीजतन उन्होंने भाजपा का दामन छोड़कर निर्दलीय चुनाव मैदान में ताल ठोक दी, परंतु पराजय ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। बाद में महरिया ने अपना राजनीतिक भविष्य आजमाने के लिए कांग्रेस का हाथ थामा और सातवीं बार लोकसभा का चुनाव लड़ा। मगर अभी तक उनका भाग्य रूठा हुआ था। ऐसे में लगातार तीन जीत दर्ज करने वाले महरिया को निरंतर तीन बार पराजय से रूबरू होना पड़ा। हाल फ़िलहाल महरिया अपने वजूद की तलाश में है लेकिन उन्हें अभी दूर तक मंजिल नजर नही आ रही हैं।
पक्के इरादे और कड़ी मेहनत के लिए मशहूर महरिया का कांग्रेस में आना एक बारगी तो यहां के नेताओं को खूब रास आया। खासकर 2018 के विधानसभा चुनाव में महरिया की कार्यशैली इतनी दमदार थी कि पूरे जिले में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया और 8 में से 7 सीट कांग्रेस की झोली में आ गिरी। जाहिर है इन नतीजों से महरिया काफी उत्साहित हुए क्योंकि अगले ही साल उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़ना था। अंततः वह समय भी आ गया, चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव का बिगुल बजाते ही उन्हें भी कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। लेकिन यह क्या, उनकी उम्मीदवारी घोषित होते ही माननीय विधायकों के तेवर ही बदल गए, वे नजरें चुराने लगे। परिणाम स्वरूप महरिया ने जिन विधायकों की जीत को अपनी ताकत मान रहे थे, वह उनके काम नहीं आई और एक बार फिर कांग्रेस की जीत मृग मरीचिका बनकर रह गई। इसी तरह पिछले दिनों हुए पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने महरिया को सीन में न रखकर और विधायकों को सर्वे सर्वा बनाकर इसके निराशाजनक परिणाम भोगे हैं। यानि कि कांग्रेस का गढ समझे जाने वाले सीकर जिले में पार्टी का गत चुनाव से भी बुरा हाल हुआ हैं। जहां भाजपा ने चुनौती देकर जिला प्रमुख के पद पर कब्जा बरकरार रखा, वहीं कांग्रेस जिले की बारह में से छः पंचायत समितियों में ही बमुश्किल प्रधान बना पाई हैं।
राजनीति टीकाकारों के मतानुसार महरिया ने पहली भूल भाजपा छोड़कर की तो दूसरी निर्दलीय चुनाव लड़कर। उनकी सबसे बड़ी और तीसरी भूल कांग्रेस में शामिल होना रही। बहरहाल उनके आलोचक भी मानते है कि सुभाष महरिया सियासत के मजे हुए खिलाड़ी है और अभी उनमें शानदार नतीजे देने की क्षमता हैं। बस आवश्यकता है तो इस बात की कि कांग्रेस आलाकमान उनकी क्षमताओं को पहचाने ताकि कांग्रेस मजबूत हो और जनता जनार्दन की सेवा करे।
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