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अंतहीन संघर्ष वाले नेता घनश्याम तिवाड़ी ghanshyam tiwari


दांतारामगढ़ (सीकर)। भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री घनश्याम तिवाड़ी वर्षों पहले अपनी मातृभूमि सीकर छोड़कर गुलाबी नगरी जयपुर में राजनीति करने लगे हो लेकिन उनकी आहट गाहे-बगाहे आज भी सीकर में महसूस की जाती रही है। सियासत के मैदान में फाउल होकर आउट होने वाले तिवाड़ी एक बार हाशिए पर जरूर चले गए हैं लेकिन वे अपने राजनीतिक जीवन के उत्तरार्ध में एक बार फिर शानदार पारी खेलने के मूड में है। हालांकि इसके लिए उन्हें ऐसे मैदान की तलाश हैं, जिसमें वह अपनी इस हसरत को पूरा कर सके। राजनीतिक टीकाकारों के बक़ौल सियासत की पूरी 'बाराखड़ी' पढ़ने वाले घनश्याम तिवाड़ी ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक नहीं दो बड़ी भूल की हैं ! इनमे अव्वल भाजपा छोड़ अलग से राजनीतिक दल बनाने और दूजी पार नहीं पड़ी तो कांग्रेस में शामिल हो जाने की गलतियां शामिल हैं, अलबत्ता उन्होंने इन भूलों को सुधारते हुए फिर अपनी मातृ संस्था भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया हैं. ऐसे में राजस्थान भाजपा के प्रमुख नेताओं में शुमार तिवाड़ी को अपने ही दल में एक बार पुनः जमने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ेगी और यह भी जरूरी नहीं है कि वह इसमें सफल हो जाए, फिर भी उनकी काबिलियत से इनकार नहीं किया जा सकता। ज्ञात रहे तिवाड़ी का  राजनीतिक सफर काफी संघर्ष पूर्ण रहा है.उन्होंने अपना पहला चुनाव साल 1980 में सीकर से लड़ा था, तब वह कड़े मुकाबले में जीते। यह भी सत्य है कि सीकर में उनकी जीत के बाद से ही भाजपा का वर्चस्व बना। नतीजतन उन्होंने अगला चुनाव साल 1985 में फिर इसी क्षेत्र से जीता। इतना ही नहीं उन्होंने सीकर से लोकसभा का चुनाव भी लड़ कर अपनी संघर्ष की गाथा को सुनहरा बनाया। यहां तक कि तिवाड़ी ने कांग्रेस के दिग्गज स्व. डॉ. बलराम जाखड़ और किसान नेता स्व. चौधरी देवीलाल के चुनावी घमासान के बीच अपने आप को खड़ा रखा। ऐसे में उनकी प्रदेशभर में तूती बोलने लगी। उन्होंने अपनी वाकपटुता के दम पर तब की कांग्रेस सरकारों को कई बार कटघरे में खड़ा करने का काम किया। उनकी सियासत तब और चमकी जब राजस्थान की राजनीति के महारथी दिवंगत नेता भैरोंसिंह शेखावत का उन्हें वरदहस्त मिला। इसी बीच सीकर की राजनीति में आए एक बड़े बदलाव से तिवाड़ी को अपनी मातृभूमि को बाय-बाय करना पड़ा। यह वो बदलाव था जब साल 1990 के विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस के राजेन्द्र पारीक से चुनाव हार गए थे। कहा जाता है कि यह नतीजा उनके लिए काफी झटकेदार साबित हुआ। परिणाम स्वरूप तब के तिवाड़ी फिर कभी आज तक सीकर नहीं लौट के आए। सीकर की राजनीति से मोह भंग होने के बाद उन्होंने अपना अगला राजनीतिक ठिकाना चौमू विधानसभा क्षेत्र को बनाया। जहां उनकी धमाकेदार एंट्री हुई लेकिन एक चुनाव जीतने के बाद दूसरे चुनाव में फिर उन्हें रिकार्ड मतों से मात खानी पड़ी। जिस पर चतुर नेताजी जान गये कि यहां अब दाल गलने वाली नहीं है तो उन्होंने तीसरा ठिकाना सांगानेर क्षेत्र को बनाया, जो कारगर सिद्ध हुआ। वहां रिकॉर्ड मतों की जीत के बाद तिवाड़ी भाजपा  सरकार में मंत्री बने, हालांकि वे प्रदेश के बड़े नेताओं में शुमार रहे लेकिन उनकी हसरतें कभी पूरी नहीं हो सकी। जिसका अफसोस शायद आज तक उन्हें है। दरअसल तिवाड़ी के जब-जब प्रदेश अध्यक्ष बनने का अवसर आया तब-तब उनके विरोधियों ने लंगड़ी मार दी। ऐसे में प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेता बनने के उनके सपने चकनाचूर हो गए। माना जाए तो राजनीतिक जीवन में उनके सबसे बुरे दिन तब आए जब भाजपा में लंबी व यशस्वी पारी खेलने के बाद उन्होंने भारत वाहिनी नाम से एक नया दल बनाया लेकिन उनका यह प्रयोग पूरी तरह फ्लॉप साबित हुआ। मामला यहां तक रहता तो भी ठीक था लेकिन तिवाड़ी को तो इससे भी बुरे दिन देखने थे तभी तो उन्होंने कांग्रेस में जाने का फिर एक और बेहूदा फैसला किया। राजनीतिक जानकारों का मानना हैं कि तिवाड़ी का यह निर्णय अपनी हैसियत को अपने ही हाथों मिटा देने वाला था। यही नही तिवाड़ी भले ही कांग्रेस में शामिल हो गए लेकिन उनका उठाव वहां बिल्कुल भी नहीं हो सका। आखिरकार "लौट के बुद्धू घर को आए" वाली कहावत को चरितार्थ करते उन्होंने भाजपा की आंतरिक राजनीति के बीच पुनः पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। बहरहाल घर वापसी के बाद तिवाड़ी का भाजपा में महत्व पहले की तरह बन पाएगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इससे कहीं ज्यादा चिंता का विषय यह है कि उनको स्वयं या फिर अपने पुत्र के लिए नई सियासी जमीन खोजनी होगी, क्योंकि सांगानेर में अब उनके लिए दरवाजे लगभग बंद हैं। ऐसे में कयास लगाया जा रहा है कि तिवाड़ी की सियासत का सफरनामा जहां से शुरू हुआ वहीं आकर पूरा होगा और वो ठिकाना सीकर ही है।

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