दांतारामगढ़। सीकर जिले की राजनीति में जड़ें जमाने की जद्दोजहद में महरिया कुनबे के एक और सदस्य नन्दकिशोर महरिया भी बड़ी शिद्दत के साथ लगे हैं लेकिन इस सुलझे हुए नेता की सियासी गणित अभी उलझी हुई हैं। अपने अग्रज सुभाष महरिया का कुशल चुनाव प्रबंधन करने के बाद स्वयं चुनावी समर में उतरे नन्दकिशोर महरिया की शुरुआत अच्छी नहीं रही, फतेहपुर विधानसभा से क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी के रूप में लगातार दो बार भाग्य आजमाने वाले नन्दकिशोर महरिया खाते में हार ही आई। यह दिगर बात है कि उन्हें दोनों बार ही विपरीत परिस्थितियों के बाद अपने बड़े भाई के रसूख से टिकट पाने में तो कोई दिक्कत नहीं हुई लेकिन जनता ने उन्हें नही स्वीकारा। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने तीसरी बार फिर फतेहपुर से ही अपना राजनीतिक भाग्य आजमाया। हालांकि इस बार उन्होंने किसी भी दल की टिकट लेने की बजाय निर्दलीय चुनाव दंगल में ताल ठोकी, परिणाम स्वरूप उनका यह फैसला कारगर साबित हुआ। महरिया जब विधायक निर्वाचित हुए तो प्रदेश में भाजपा की सरकार थी। ऐसे में क्षेत्र के विकास के लिए उन्होंने अपने पुराने संबंधों को काम में लेना शुरू किया, जिससे फतेहपुर शेखावाटी में विकास की हलचल होने लगी। बता दे कि यह इलाका सदैव कमजोर नेतृत्व के कारण पिछड़ा रहा हैं। कमोबेश स्थिति आज भी बद से बदतर बनी हुई हैं। महरिया के कार्यकाल को लोग आज भी याद करते हैं। दरअसल निर्दलीय विधायक रहते हुए उन्होंने वहां विकास कार्यों के पंख लगा दिए थे। परंतु महरिया की राजनीति फतेहपुर में लंबी नहीं चल पाई। इसकी बड़ी वजह, वह सियासी उठापटक रही, जो उनके अग्रज सुभाष महरिया के दृष्टिकोण से चल रही थी, जिसे छोटा भाई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। बदलते राजनीतिक हालात में सुभाष महरिया भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आ गए। उनके इस फैसले से छोटे महरिया की राजनीति पर भी असर पड़ा। इसी कारण फतेहपुर से महरिया न तो निर्दलीय चुनाव लड़ पाए और न ही उन्हें कांग्रेस का टिकट मिला। छोटे मियां को टिकट न मिलने के दो प्रमुख कारण थे। इनमें पहला फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस की अल्पसंख्यक वर्ग के प्रत्याशी को टिकट देने की परंपरा और दूसरा बड़े महरिया को सीकर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट मिलने का पक्का वादा। ऐसे में कांग्रेस एक ही घर में दो टिकटें देने को तैयार नहीं थी। ऐसी परिस्थिति में छोटे महरिया को संतोष करने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। इस बीच छोटे महरिया ने अपने भाई के चुनाव स॔चालन का प्रबंधन तो जरूर संभाला लेकिन कांग्रेस से दूरियां भी बनाए रखी। लंबी खामोशी के बाद नन्दकिशोर महरिया के लिए खुद के लिए निर्णय करने का वक़्त फिर नजदीक आ रहा हैं। जीती हुई बाजी के बावजूद चुनाव न लड़ने का उनका फैसला सही था या गलत ? यह तो अतीत का विषय है लेकिन अब उन्हें सियासत करनी है तो कड़े फैसले लेने होंगे। मतलब साफ है छोटे महरिया को अपनी ऐसी चुनावी डगर स्वयं तय करनी होगी जो उनके भविष्य को उज्जवल बना सके।
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