कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।। अर्थात जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाने का दिखावा करता है जबकि मन में उन विषयों को याद करता रहता है,उनको पसन्द करता है,उनको पाने की अभिलाषा करता है तथा लुक छिपकर चोरी से उन विषयों को भोगता भी है,वह व्यक्ति *मिथ्याचारी* होता है।वह लोगों को दिखाने के लिए संत,ब्रह्मचारी, सदाचारी बनता है किन्तु उसका वास्तविक जीवन उसके विपरीत दुराचारयुक्त होता है।
पिछले दिनों भारत भर में कई संत इस बात के लिए चर्चित रहे कि लोक-दिखावे में तो वे संत बने हुए थे और छिपकर दुराचार करते थे।
ऐसे व्यवहार को गीता में मिथ्याचार कहा गया है। इसी व्यवहार को ढोंग,पाखण्ड , आडम्बर एवं दिखावटी भी कहा जाता है।
एक ब्राह्मणजातीय युवक लोगों के सामने बड़ी डींग मारता था कि हमारे घर में आज तक लहसुन एवं प्याज का प्रवेश नहीं हुआ।मेरी मां इस मामले में बहुत सख्त है।उसी युवक को एक दिन उसके परिचित लोगों ने दूसरे नगर में लहसुन की चटनी तथा प्याज खाते हुए देख लिया।
आचार्य राम गोपाल सैनी
0 टिप्पणियाँ